Monday, May 10, 2010

जाति आधारित जनगणना की उलझनें

जाति को जनगणना में शामिल कराने के लिए नागपुर की महात्मा फूले समता परिषद ने उच्चतम न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की है जिस पर सरकार को जवाब देना है। याचिका में कहा गया है कि संविधान के अनुच्छेद 340 के तहत अन्य पिछड़े वर्गों के कल्याण को आगे बढा़ना सरकार की जि़म्मेदारी है। इसलिए उनकी ठीक संख्या का पता न करना संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 340 का उल्लंघन है। पिछले साल पीएमके ने भी ऐसी ही एक याचिका उच्चतम न्यायालय में दायर की थी जिसे अदालत ने इस आधार पर खारिज कर दिया कि इससे बहुत अधिक कलह हो सकती है और इसी कारण गत 60 वर्षों में ऐसा नहीं किया गया। वैसे पश्चिम बंगाल सरकार अकेली राज्य सरकार है जिसने जाति-आधारित जनगणना कराने के लिए प्रतिवेदन केन्द्र को भेजा है। इसके अलावा आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु की विधान सभाओं ने सर्वमत से प्रस्ताव पारित कर केन्द्र से पिछड़े वर्गों की गिनती अलग से कराने का अनुरोध किया है।
जाति-आधारित जनगणना के पक्ष में सबसे बडा़ तर्क यह है कि सरकार की सभी नीतियां जाति आधारित हैं। आरक्षण जाति के आधार पर दिया जाता है, योजना आयोग पिछड़े वर्गों के लिए जाति के आधार पर योजना बनाता है, आदि। इसलिए जाति की गणना से प्रमाणित आंकड़े सरकार के पास होंगे जिससे योजना बनाने में लाभ होगा। अभी 1931 के आंकड़ों के आधार पर योजनाएं बनायी जाती हैं जो किसी भी रुप में उचित नहीं है। मंडल आयोग ने अन्य पिछड़े वर्गों की आबादी 52 प्रतिशत माना जबकि राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन ने 1994 में इसे 41 प्रतिशत माना। साथ ही यह भी कहा जाता है कि यदि अनुसूचित जाति-जनजाति की गणना हो सकती है तो अन्य पिछड़े वर्गों की क्यों नहीं।
जातीय गणना के विरुद्घ सबसे बडा़ तर्क यह है कि इससे जातिवाद को वैधता मिलेगी और अंतत: बढा़वा। जाति एक सच्चाई है, किंतु भारतीय संविधान और समाज का लक्ष्य वर्णहीन, वर्गहीन समाज का निर्माण है। इसीलिए 1951 की जनगणना में लोगों के उपनाम तक नहीं लिखे गये थे। अस्पृश्यता को कानूनी अपराध बनाया गया। अन्तर्जातीय विवाह को वैधता प्रदान करने के लिए हिन्दू विवाह सत्यापन अधिनियम, 1946 बनाया गया जिसके तहत अनुलोम और प्रतिलोम दोनों विवाह मान्य हो गये। अनुलोम विवाह में उच्च जाति का वर और निचली जाति की कन्या होती थी जो मान्य था, परंतु प्रतिलोम में इसका उल्टा था जो न केवल अमान्य था, बल्कि इसके लिए दण्ड का भी प्रावधान था। यानी जाति को समाप्त करने के लिए हमारे नेताओं ने कई कानून बनाये। दुर्भाग्य से उन कानूनों का पालन तो सरकार करा नहीं पा रही है जिसका परिणाम है खाप पंचायतों के तुगलकी आदेश और निरुपमा पाठक की हत्या। निरुपमा का विवाह यदि होता तो वह पारम्परिक सोच के अनुसार प्रतिलोम माना जाता। इसी सोच से उसके माता-पिता नहीं निकल पाये थे, हालॉकि निरुपमा निकल चुकी थी। यानी आज की पीढ़ी कहीं ज्यादा प्रगतिशील और समझदार है परंतु पुरानी पीढी़ जाति के बंधन को और मजबूत करना चाहती है।जातीय गणना में कई व्यावहारिक दिक्कतें हैं। 1931 के बाद जनगणना में जाति का जिक्र भी व्यवहारिक कारणों से ही बंद किया गया था। तब कई मामलों में यह पाया गया था कि लोग जिस जाति के होते थे अपने को उससे ऊंची जाति का बता देते थे। यही खतरा एक दूसरी तरह से आज भी दिखाई दे रहा है। चूंकि आज पूरी राजनीति जातीय वोट बैंक पर आधारित है, इसलिए बहुत सम्भव है कि अपनी-अपनी जातियों के बारे में संख्या बढ़ा चढ़ा कर पेश की जाएगी। 1881 की जनगणना में कुल 1885 अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की पहचान की गयी थी। इसके बावजूद 2001 की जनगणना में इन जातियों की संख्या 18748 से अधिक हो गयी। इनमें से कई के नाम, उपनाम गैर-दलित, आदिवासी जातियों के थे। 1931 के बाद पिछले 70 वर्ष में कई जातियों के नाम बदल गये हैं, कई नयी जातियां सामने आ गयी हैं, कई जातियां दूसरों से मिल गयी हैं या सामाजिक वरीयता में ऊपर-नीचे हो गयी हैं। साथ ही विभिन्न राज्यों में पिछड़े वर्गों की सूचियां भी भिन्न-भिन्न हैं। सबसे बड़ा खतरा जाति आधारित जनगणना को लेकर नहीं है, खतरा यह है कि इससे मिलें आंकड़ों को बाद में राजनीति के हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है। बल्कि किया ही जाएगा। यह भी हो सकता है कि कुछ जातियों को अगर ये आंकडे अगर उनकी उम्मीदों पर खरे उतरते नहीं दिखाई दिए तो वे इसे मानने से ही इनकार कर सकती हैं। ऐसे में जनगणना एक बेवजह राजनैतिक विवाद का कारण बन जाएगी। जबकि जनगणना इसके लिए होती नहीं है।

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