Monday, May 10, 2010
जाति आधारित जनगणना की उलझनें
जाति-आधारित जनगणना के पक्ष में सबसे बडा़ तर्क यह है कि सरकार की सभी नीतियां जाति आधारित हैं। आरक्षण जाति के आधार पर दिया जाता है, योजना आयोग पिछड़े वर्गों के लिए जाति के आधार पर योजना बनाता है, आदि। इसलिए जाति की गणना से प्रमाणित आंकड़े सरकार के पास होंगे जिससे योजना बनाने में लाभ होगा। अभी 1931 के आंकड़ों के आधार पर योजनाएं बनायी जाती हैं जो किसी भी रुप में उचित नहीं है। मंडल आयोग ने अन्य पिछड़े वर्गों की आबादी 52 प्रतिशत माना जबकि राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन ने 1994 में इसे 41 प्रतिशत माना। साथ ही यह भी कहा जाता है कि यदि अनुसूचित जाति-जनजाति की गणना हो सकती है तो अन्य पिछड़े वर्गों की क्यों नहीं।
जातीय गणना के विरुद्घ सबसे बडा़ तर्क यह है कि इससे जातिवाद को वैधता मिलेगी और अंतत: बढा़वा। जाति एक सच्चाई है, किंतु भारतीय संविधान और समाज का लक्ष्य वर्णहीन, वर्गहीन समाज का निर्माण है। इसीलिए 1951 की जनगणना में लोगों के उपनाम तक नहीं लिखे गये थे। अस्पृश्यता को कानूनी अपराध बनाया गया। अन्तर्जातीय विवाह को वैधता प्रदान करने के लिए हिन्दू विवाह सत्यापन अधिनियम, 1946 बनाया गया जिसके तहत अनुलोम और प्रतिलोम दोनों विवाह मान्य हो गये। अनुलोम विवाह में उच्च जाति का वर और निचली जाति की कन्या होती थी जो मान्य था, परंतु प्रतिलोम में इसका उल्टा था जो न केवल अमान्य था, बल्कि इसके लिए दण्ड का भी प्रावधान था। यानी जाति को समाप्त करने के लिए हमारे नेताओं ने कई कानून बनाये। दुर्भाग्य से उन कानूनों का पालन तो सरकार करा नहीं पा रही है जिसका परिणाम है खाप पंचायतों के तुगलकी आदेश और निरुपमा पाठक की हत्या। निरुपमा का विवाह यदि होता तो वह पारम्परिक सोच के अनुसार प्रतिलोम माना जाता। इसी सोच से उसके माता-पिता नहीं निकल पाये थे, हालॉकि निरुपमा निकल चुकी थी। यानी आज की पीढ़ी कहीं ज्यादा प्रगतिशील और समझदार है परंतु पुरानी पीढी़ जाति के बंधन को और मजबूत करना चाहती है।जातीय गणना में कई व्यावहारिक दिक्कतें हैं। 1931 के बाद जनगणना में जाति का जिक्र भी व्यवहारिक कारणों से ही बंद किया गया था। तब कई मामलों में यह पाया गया था कि लोग जिस जाति के होते थे अपने को उससे ऊंची जाति का बता देते थे। यही खतरा एक दूसरी तरह से आज भी दिखाई दे रहा है। चूंकि आज पूरी राजनीति जातीय वोट बैंक पर आधारित है, इसलिए बहुत सम्भव है कि अपनी-अपनी जातियों के बारे में संख्या बढ़ा चढ़ा कर पेश की जाएगी। 1881 की जनगणना में कुल 1885 अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की पहचान की गयी थी। इसके बावजूद 2001 की जनगणना में इन जातियों की संख्या 18748 से अधिक हो गयी। इनमें से कई के नाम, उपनाम गैर-दलित, आदिवासी जातियों के थे। 1931 के बाद पिछले 70 वर्ष में कई जातियों के नाम बदल गये हैं, कई नयी जातियां सामने आ गयी हैं, कई जातियां दूसरों से मिल गयी हैं या सामाजिक वरीयता में ऊपर-नीचे हो गयी हैं। साथ ही विभिन्न राज्यों में पिछड़े वर्गों की सूचियां भी भिन्न-भिन्न हैं। सबसे बड़ा खतरा जाति आधारित जनगणना को लेकर नहीं है, खतरा यह है कि इससे मिलें आंकड़ों को बाद में राजनीति के हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है। बल्कि किया ही जाएगा। यह भी हो सकता है कि कुछ जातियों को अगर ये आंकडे अगर उनकी उम्मीदों पर खरे उतरते नहीं दिखाई दिए तो वे इसे मानने से ही इनकार कर सकती हैं। ऐसे में जनगणना एक बेवजह राजनैतिक विवाद का कारण बन जाएगी। जबकि जनगणना इसके लिए होती नहीं है।
''नक्सली क्षेत्र में हम नहीं करेंगे जनगणना''
जाति आधारित जनगणना : 2014 से पहले आकलन मुश्किल
जाति जनगणना में भावी सियासत
जाति के आधार पर जनगणना का सवाल केंद्र सरकार और कांग्रेस दोनों के लिए मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डालने जैसा ही लग रहा है। केंद्र सरकार और कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व में बनी सहमति के बाद जाति जनगणना के सवाल पर भले ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सकारात्मक आश्वासन देकर विरोधियों के आक्रोश को ठंडा कर दिया, लेकिन केंद्र सरकार और कांग्रेस के भीतर इस मसले पर अभी भी अलग राय जाहिर करने वालों की कमी नहीं है।
लोकसभा में जाति के आधार पर गिनती का विरोध करने वाले कांग्रेस सांसद भक्त चरण दास अभी भी अपनी राय पर कायम हैं। उनका कहना है कि जिन यादव बंधुओं को लोगों ने खारिज कर दिया, उनको जनगणना के बहाने अपनी राजनीतिक रोटी सेंकेने का नया मौका हाथ लगा है। चरण दास ने कहा कि आने वाले दिनों मंे जाति के आधार पर गिनती के भयावह परिणाम सामने आ सकते हैं। उनका कहना है कि इस मुद्दे का तात्कालिक लाभ जिसे भी हो जाए सामाजिक तानेबाने के लिए यह बहुत ही दुखद पहलू साबित होगा। कांग्रेस में शीर्ष स्तर पर कहा जा रहा है कि सरकार के फैसले से मंडल और पिछड़ों की राजनीति करने वालों का दांव फेल हो जाएगा और कांग्रेस फायदे की स्थिति में रहेगी।
कानून मंत्री वीरप्पा मोइली के मुताबिक जाति के आधार पर राजनीति करने वालों की हकीकत सभी जान चुके हैं। उनका मानना है कि जाति की सही तस्वीर सामने आने से विकास केंद्रित योजनाओं का सही वितरण जरूरत के मुताबिक संभव होगा। मोइली की लाइन पर पार्टी के कई मंत्री और नेता खड़े हैं। हालांकि पिछले दिनों कैबिनेट बैठक में ही यह स्पष्ट हो गया था जब आधा दर्जन से ज्यादा केंद्रीय मंत्रियों ने गृह मंत्री पी चिदंबरम के तर्क को खारिज करके जाति आधारित जनगणना का समर्थन किया था।
पार्टी के रणनीतिक समूह में शामिल एक नेता के मुताबिक पूरी संसद की बात को एकतरफा फैसले से खारिज नहीं किया जा सकता है। एक वरिष्ठ नेता के मुताबिक सही तस्वीर जानना सबके हित में है। सांसद बेनी प्रसाद वर्मा इस सवाल को सिरे से खारिज करते हैं कि इससे जाति की राजनीति करने वाले दलों और नेताओं को कोई फायदा होगा। उन्होंने कहा कि देश में मंडल और कमंडल दोनों ही धड़ों की राजनीति का दौर समाप्त हो गया है। उनके मुताबिक जब जाति की हकीकत सभी मानते हैं तो इसकी सही संख्या जानने से परहेज की किसी भी तरह की कोशिश से जातिवादी सियासत करने वालों को ही अनायास एक मुद्दा मिलेगा।
कांग्रेस में ऐसे नेताओं की भी कमी नहीं है जिनका मानना है कि कांग्रेसनीत सरकार के संख्या के लिहाज से नाजुक समीकरण को देखते हुए संसद के बहुमत को टालना सरकार के लिए नई मुसीबत खड़ी कर सकता था। लिहाजा सरकार अहम मौकों पर सरकार के साथ खड़े लालू-मुलायम जैसे सहयोगियों को भी नाराज करने के पक्ष में नहीं थी।
सूत्रों का कहना है कि खुद कांग्रेस अध्यक्ष भी जाति के आधार पर जनगणना की मांग करने वालों की संख्या देखकर इसके पक्ष में खड़ी नजर आईं। सूत्रों का कहना है कि वर्ष 2005 में भी सोनिया गांधी की अगुआई वाले राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की ओर से जाति के आधार पर जनगणना का मामला उठाया गया था। सूत्रों के मुताबिक कांग्रेस अध्यक्ष इस मामले में सदन का मत जानने को विशेष उत्सुक थीं। ऐन मौके पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी का मत भी गृह मंत्री पी चिदंबरम की उन सभी तार्किक मसौदों पर पानी फेर गया जो उन्होंने जाति आधारित जनगणना के प्रस्ताव को खारिज करने के लिए तैयार किए थे।
जनगणना के समर्थक मंत्रियों और सांसदों का तर्क है कि जब हरेक योजना में पिछड़ों व वंचित तबकों की संख्या जानने की जरूरत होती है तो सरकार को हकीकत जानने से क्यों परहेज करना चाहिए। हालांकि केंद्र सरकार के सूत्रों का कहना है कि जनगणना के लिए तय होने वाली प्रक्रिया में इस बात का जरूर प्रयास होगा कि किस तरह से जाति गणना से होने वाले नुकसान को कम किया जा सके।
‘धर्म और भाष भी बने जनगणना का आधार’
जाति आधारित जनगणना के मुद्दे पर जल्द कोई फैसला लेने के सरक ार के हालिया आश्वासन के बीच, दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग ने जनगणना फॉर्म में धर्म और भाष क क ॉलम भी जोड़ने क ा सुझाव दिया है। आयोग के अध्यक्ष क माल फारूकी ने शनिवार को संवाददाताओं से क हा, ‘अगर जनगणना में जाति के साथ धर्म और भाष को भी बुनियाद आधार बनाया जाता है तो इससे देश के अलग-अलग तबकों की असली स्थिति का पता चलेगा और उनके हित में योजनाएं बनाने में मदद मिलेगी।’ फारूकी ने जाति आधारित जनगणना पर क हा कि इस हकीकत को भुलाया नहीं जा सकता कि भारतीय समाज जाति आधारित है। जाति आधारित जनगणना से मिले महत्वपूर्ण आंकड़े अलग-अलग जातियों के विकास का नया खाका तैयार क रने का काम आसान कर देंगे।
जनगणना एक नजर मंे
> वर्ष 2011 की जनगणना देश में 1872 के बाद 15वीं और आजादी के बाद 7वीं होगी।
> जनगणना का काम दो चरणों में किया जाएगा। पहले चरण में घरों का चिह्न्ति और उनकी गणना की जाएगी। दूसरे चरण में आबादी की गणना का काम किया जाएगा।
> इस काम में देश के हर व्यक्ति और हर घर की गणना होगी। इसके लिए 21 लाख सरकारी कर्मचारी काम करेंगे।
> वर्ष 1931 के बाद की यह पहली जनगणना होगी जिसमें जाति संबंधी प्रo होगा। इससे पहले अनुसूचित जाति और जनजाति से संबंधित प्रश्न ही पूछे जाते रहे हैं।
> केंद्र सरकार के मुताबिक वर्ष 2001 की जनगणना के दौरान भी जाति संबंधी प्रoA को शामिल करने का सुझाव सामाजिक अधिकारिता मंत्रालय ने दिया था। लेकिन उस समय सरकार ने इस पर कोई निर्णय नहीं लिया।
> जनगणना किसी भी रूप में नागरिकता का प्रमाण नहीं है। यह भारत के नागरिकों या विदेश में रहने वाले भारतीय नागरिकों या फिर भारत के अधिकृत भू-भाग मंे रह रहे लोगों की पहचान का काम है।
Caste Census - consensus for the same
Just as one thought the star of north India’s best-known OBC leaders, Mulayam Singh Yadav and Lalu Prasad, was falling, the duo seem to have been revitalised with the government conceding their demand to include caste in the census.
Two emotive issues on the OBC political agenda have lost steam: quotas in government jobs, implemented in the early 1990s, and reservations in education, taken up during the United Progressive Alliance’s first avatar (2004-09). OBC chieftains, without much success, tried to whip up emotion recently by denouncing the women’s Bill as anti-OBC.
A caste census may just help them reactivate the OBC agenda.
We may finally know after 80 years which castes are the most numerous in India, and which number the least. The British enumerated castes from 1871 to 1931, after which the caste-based census in India was discontinued.
It wasn’t revived post-independence, for it was thought to be divisive.
At present, censuses do show the numbers of scheduled castes, scheduled tribes and Muslims – three social groups seen to be on the margins of India’s growth story – but leave out the OBCs, the fourth group seen by many as backward.
OBC population figures are thus just estimates, ranging from 52 per cent as stated by the Mandal Commission to 41 per cent as given by the National Sample Survey Organisation (NSSO).
“This will open another Pandora’s Box and activate fresh demands,” political scientist Jyotirmaya Sharma of Hyderabad Central University said. “It has not been spelt out what a caste census would achieve in principle.”
Delhi University historian Pradip Kumar Datta disagrees. “The caste census would provide useful data on groups that are getting state benefits. The argument that it will increase casteism is unconvincing. Elections too are fought on caste issues. Will you ban them too?”
Not being a favourite of the OBCs in UP and Bihar — states that account for almost a fourth of the 543 Lok Sabha seats — the Congress is unlikely to gain from a caste census; the reason why the party has been reluctant. But an apparent understanding with Lalu and Mulayam, who may support the government during number-counts in Parliament in return for a caste census, seemed to have done the trick.
This is at a time when the SP and RJD — hostile to the government in recent times — have made some positive gestures. The two parties have supported the Civil Liability for Nuclear Damage Bill and walked out of the Lok Sabha during the cut motion vote, indirectly helping the government.
Three of the five Congress leaders who spoke during the debate on the topic in Parliament opposed the idea.
True, the party’s political interest would normally lie in leaving the OBCs alone and enlisting Muslim support, breaking the RJD and SP’s Muslim-Yadav bastion. The Congress’ support base in the Gangetic plain till about 1990 was upper castes, Dalits and Muslims.
The Ranganath Mishra report, which recommended that a part of the OBC quota pie be given to religious minorities, has been seen as a Congress step at attracting Muslims and marginalising OBC parties like the SP and RJD.
However, it is the BJP — dubbed a Bania-Brahmin paty for long — that has sprung a surprise by backing a caste census. The reason: as Muslims in UP and Bihar are likely to shift towards the Congress after the Sachar and Ranganath Mishra reports (the Sachar report highlighted the plight of Muslims in the country), the BJP wants to attract OBCs.
With the Yadav population in UP and Bihar estimated at 8.7 per cent and 11 per cent, respectively, the SP and RJD may fare poorly without the support of Muslims (18 per cent of the population in UP and 16 per cent in Bihar).
BJP leader Gopinath Munde, the present OBC face of the party, had said during the party’s recent national council in Indore: “We will not allow minorities eat up the quota share of Hindu OBCs, as recommended by the Ranganath Mishra Commission.”
The BJP enjoyed steady non-Yadav OBC support in UP in the 1990s, which was lost by up to 20 percentage points after 2000, aiding the party’s decline. It also lost OBC leaders Uma Bharti and Kalyan Singh. However, it still has prominent OBC Chief Ministers in Narendra Modi and Shivraj Singh Chouhan.